गुब्बारे वाला
मुस्कान बेचते हैं,
मुस्कुरा नहीं पाते,
इस गरिबी के भी
कुछ कायदे होते हैं.
बिलकुल जब भी गुब्बारे बेचते उस लड़के को देखती हू तो जेहन में यहीं सवाल खड़ा रहता है कि आखिर गरीबी क्या इसी को कहते हैं.....? छह सात साल का वह लड़का लगभग रोज़ ही उस होटल के सामने शाम को गुब्बारे बेचने का के लिए आता है। यह उसका रोज का रुटीन काम बन गया था।
गर्मी के दिनों में उस होटल के सामने लस्सी पीने वालों का तांता लगा रहता है। मैं तो रोज़ ही उस होटल के सामने से गुज़रती हू, मेरी आँखे रोज उसे उस भीड़ में भी ढूढ़ ही लेती हैं। मेरा मन रोज़ उस बच्चे से बात करने मचल उठता हैं और मन करता हैं कि पूछूं उससे कि, ऐसी भी क्या मज़बूरी हैं उसकी की इतनी छोटी सी उम्र में घर से निकल आए हों कमाने के लिए। इतना सा तो हैं वह, उसका वह मासूम सा चेहरा हमेशा ही मेरे आँखों के सामने खुद ब खुद आ जाता है। लस्सी औेर कुल्फी के तरफ देखकर यू ललचाना, उसके पास पैसे होते हुए भी मन में खाने की इच्छा होते हुए भी उसे आज तक मैंने कभी भी कुछ भी खाते हुए कभी भी नहीं देखा हैं। यह बात मुझे सबसे ज्यादा तकलीफ़ देती हैं। आखिर क्या वज़ह हैं कि पैसे होते हुए भी वह कभी भी खाता नहीं हैं, बस देखता रहता है।
उस भीड़ में उसे ढूढ़ना मेरा भी रुटीन हो गया है। आज तो मैंने भी ठान ही लिया कि मुझे उसके साथ बात करनी ही हैं। इसी उधेडबुन मे मैं कब उस होटल तक पहुच गई पता ही नहीं चला।
बहुत देर तक वह लड़का मुझे नजर ही नहीं आया ।मैं थोड़ी देर के लिए उदास हो गई, इतने दिनों से उसे रोज देखते हुए मुझे उसके साथ कुछ लगाव सा हो गया हैं, और मुझे लगा जैसे कि मैं उसे आज के बाद कभी देख ही नहीं पाऊँगी। तभी गुब्बारे वाले उस बच्चे की जानी पहचानी आवाज़ मेरे कानो तक पहुँची और मैं उस आवाज़ की ओर चलने लगी। सामने से वहीं गुब्बारे वाला लड़का हाथ में गुब्बारे लिए सामने से आता हुआ दिखाई देता है जैसी ही वह मेरे पास आया मैंने बस हाथ पकडकर उसका नाम पूछ ही लिया। मैंने उसे अपने साथ लस्सी पीने का ऑफर दिया जिसे सुन कर मानो उसकी वर्षो की मनोकामना खुद भगवान ने आकर पुरी कर दी हो वह मुझे कुछ इसी तरह देखने लगा। उसके बाद हमारी बातों का सिलसिला शुरू हो गया।
सुरज.... यही है उसका नाम। इस दुनिया में बिलकुल भी अकेला। माता पिता को उसने देखा तक नहीं हैं, और शायद कोई है भी नहीं। उसकी ईन बातों से मैं अवाक होकर उसे देखने लगी। इतना छोटा सा बच्चा अकेला ऐसी दुनिया में कैसे रह लेता हैं? उसमे भी ना तो उसके पास घर हैं और ना ही रहने का कोई ठिकाना जो भी मिला खा लिया और ना मिला, तो क्या पैसे हो तो खाओ नहीं तो वैसे ही रात काट लो। बस ऐसे ही दिन निकल रहे थे उसके। उसकी सारी बातें सुनकर मैं उसकी तरफ बस देखती ही रहीं और सोचने लगी भगवान ऐसे भी जीना सीखा देते हैं। कैसे जी लेते हो ऐसे?मैंने सुरज से पूछ ही लिया।' बस भगवान जीना सीखा देते हैं' उसका जवाब सुनकर मैं बस उसकी तरफ देखती ही रही। इतनी सी उम्र में इतनी समझदारी वाली बात, और एक हम हैं जिन्हें ज़िंदगी से और भगवान से भी हज़ारों शिकायतें हैं।
हम शायद ही कभी किसी चीज़ से खुश हों। लेकिन सुरज उसके पास तो खुश होने वाली कोई भी चीज़ नहीं हैं। फिर वह खुश हैं। भगवान ने इतनी छोटी सी उम्र में उससे हर वह चीज़ छीन ली जिसकी उसे सबसे ज्यादा ज़रूरत हैं। फिर भी वह खुश हैं, हर हाल में। और एक हम जैसे लोग जिनके पास वह सब कुछ हैं जिसकी हमें ज़रूरत हैं और फिर भी हम खुश नहीं हैं। हम तो भगवान से भी दुखी हैं और सुरज... उसके पास जो भी हैं, वह उसके लिए भी भगवान का नाम लेता हैं। उसे तो अपनी ज़िंदगी से मानो कोई शिकायत ही नहीं हैं। जीना शायद इसी को कहते हैं।मै उसे कुछ सिखाने आई थी और उसने मुझे ही बहुत कुछ सीखा दिया।
सुरज और उसके जैसे पता नहीं कितने ही सुरज हमारे आस पास हैं। लेकिन हम सिर्फ अपने आप में ही खुश हैं। शायद उन्हें भगवान की नहीं इंसानियत के एक छोटी सी मदद की ज़रूरत हैं। हमारी ज़रूरत हैं, आपकी ज़रूरत हैं। आकाश में सुरज तभी चमकेगा जब हम उसे ऊपर उठने का मौका देंगे।