हमारा समाज ....
आज मन में कुछ और ही चल रहा था. देशभर में हों रहें बलात्कार और हत्याओं के ख़बरों ने सोचने पर मजबूर कर दिया. आखिर क्यू हम ऐसे समाज का हिस्सा बन गये हैं जो आज संवेदन हीनता की पराकाष्ठा पार कर चुका हैं. स्त्री देह की लालसा में यह पुरुष प्रधान समाज और कौन सी हदे पार करेगा शायद यह अब भी हम नहीं बता सकते.
ना जाने आज क्यू कलम कुछ लिखते लिखते भी रुक सी जा रहीं हैं. शायद उन बच्चियों की चीख मेरे कानो में गूंज रहीं हैं. मैं आखिर ऐसे कैसे शांत बैठ सकतीं हू, जबकि मेरे आस पास कहीं ना कहीं कोई कोई ना कोई बच्ची किसी के वहशीपन पन का शिकार हो रहीं हैं. क्या कोई बाहर से आकर हमारे घरों में घुस कर, हमारी बेटियों को अपने वहशीपन का शिकार बना रहा हैं ? जी बिलकुल भी नहीं. कोई बाहर वाला नहीं आता हैं हमारी बच्चियों को कुचलने, के लिए बल्कि वह हमारे अपनों के बीच छुपा हुआ ही कोई शैतान होता हैं.
क्या गुजरती होगी उस छोटी सी बच्ची पर जिसे यह तक पता नहीं चलता कि आख़िर उसके साथ जो कुछ हुआ वह आखिर क्यू हुआ....! और उससे वह सब करने वाला कोई और नहीं बल्कि उसी का कोई चाचा, मामा या फिर कोई पहचान वाला हैं. फिर ऐसे में हम कैसे चुप चाप हाथ पे हाथ धरे बैठ सकते हैं.
ऐसा अंधा समाज आखिर किस काम का. सोचने पर मजबूर हो जाती हू जब भी ऐसी कोई बाते सुनती हूं. आखिर क्यू हम ऐसी घिनौनी सोच के विरोध में आवाज़ नहीं उठाते. कई बार तो खुद बच्चियों के माता पिता भी इसके विरोध में आवाज़ नहीं उठाते. समाज और इज्जत का हवाला देते हुए यह बाते छुपा दी जाती हैं. कोई नहीं सोचता उसके बारे में जिसके साथ यह वहशीपन होता हैं. वह बच्ची कहां जाये, किससे कहें अपनी आप बीती. जहां उसके माता-पिता ही उसको नहीं समझना चाहतें तो औरों की तो बात ही छोड़ दीजिए.
घर के अंदर, अपनों के हाथों होने वाले वह घिनौने अपराध कभी किसी के सामने आते ही नहीं हैं. और यह हमारे समाज की एक घिनौनी सच्चाई हैं. जहां ना जाने हमारी कितनी ही बेटियाँ अपनों के खाल में छुपे हुए भेड़ियों का शिकार होती रहती हैं. और उससे भी बड़ी सच्चाई यह है कि वह भेड़िये बिना किसी खौफ के समाज में सर उठाकर चलते हैं. यही हक़ीक़त हैं हमारे समाज की.....