“इज़ाज़त”

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तुमसे मिलना इस जनम में तो अब मुमकिन नहीं,
इज़ाज़त हो तो तुम्हारा ख़्याल कर लूँ क्या


तुम मेरे ख्वाबों में जो सरेआम चली आती हो,
इज़ाज़त हो तो तुम्हें ख्वाबों में चूम लूँ क्या


तुम्हारा चेहरा उस चाँद को भी फीका कर दे,
इज़ाज़त हो तो तुम्हारा दीदार कर लूँ क्या


जो हो तुम्हारा जी मुझसे जिस्म ओ रूह होने का,
इज़ाज़त हो तो मैं ऐसी भी कोई तमन्ना कर लूँ क्या